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Bhaktamar Mahima in Hindi-भक्तामर महिमा

Bhaktamar Mahima in Hindi-भक्तामर महिमा की दिव्य सार्थकता का अनुभव करें। इस शाश्वत जैन प्रार्थना की आध्यात्मिक सौंदर्य में खो जाएं, जो सर्वोत्तम गुणों की स्तुति करती है। गहरी श्लोकों का अन्वेषण करें और कभी पहले नहीं हुए एक आध्यात्मिक यात्रा का अनुभव करें।

Bhaktamar Mahima in Hindi-भक्तामर महिमा

श्री भक्तामर का पाठ, करो नित प्रात,
भक्ति मन लाई। सब संकट जाएँ नशाई॥

जो ज्ञान-मान-मतवारे थे, मुनि मानतुंग से हारे थे।
उन चतुराई से नृपति लिया, बहकाई॥ सब संकट…॥1॥

मुनिजी को नृपति बुलाया था, सैनिक जा हुक्म सुनाया था।
मुनि वीतराग को आज्ञा नहीं सुहाई॥ सब संकट…॥2॥

उपसर्ग घोर तब आया था, बलपूर्वक पकड़ मँगाया था।
हथकड़ी बेड़ियों से तन दिया बंधाई॥ सब संकट…॥3॥

मुनि काराग्रह भिजवाए थे, अड़तालिस ताले लगाए थे।
क्रोधित नृप बाहर पहरा दिया बिठा॥ सब संकट…॥4॥

मुनि शांतभाव अपनाया था, श्री आदिनाथ को ध्याया था।
हो ध्यान-मग्न भक्तामर दिया बनाई॥सब संकट…॥5॥

सब बंधन टूट गए मुनि के, ताले सब स्वयं खुले उनके।
काराग्रह से आ बाहर दिए दिखाई॥ सब संकट…॥7॥

जो पाठ भक्ति से करता है, नित ऋषभ-चरण चित धरता है।
जो ऋद्धि-मंत्र का विधिवत जाप कराई॥ सब संकट…॥8॥

भय विघ्न उपद्रव टलते हैं विपदा के दिवस बदलते हैं।
सब मन वांछित हों पूर्ण, शांति छा जाई॥ सब संकट…॥9॥

जो वीतराग आराधन है, आतम उन्नति का साधन है।
उससे प्राणी का भव बंधन कट जाईं॥ सब संकट…॥10॥

‘कौशल’ सुभक्ति को पहिचानो, संसार-दृष्टि बंधन जानो।
लो भक्तामर से आत्म-ज्योति प्रकटाई॥ सब संकट…।11॥

“भक्तामर महिमा” एक प्रमुख जैन धार्मिक ग्रंथ है जो भगवान आदिनाथ (ऋषभदेव) की महिमा को समर्पित है। इस ग्रंथ का संस्कृत में रचना किया गया है और इसमें 48 श्लोक होते हैं, जिन्हें रचयिता श्रीमत् आचार्य मंदन मिश्र द्वारा बोले गए हैं।

“भक्तामर” शब्द का अर्थ होता है “भक्ति से बना हुआ” या “भक्ति में डूबा हुआ” और “महिमा” का अर्थ होता है “महत्त्व” या “ग्रहणीयता”। इस ग्रंथ का पठन और स्तुति का कार्य होता है जिससे भगवान की महिमा को अनुभव किया जा सकता है।

“इस स्तोत्र का नाम ‘भक्तामर’ कैसे हुआ?

स्तोत्र के पहले श्लोक के पहले पद के आधार पर इसका सर्वप्रसिद्ध और प्रचलित नाम ‘भक्तामर स्तोत्र’ बना। ‘युगादौ’ और ‘प्रथमं जिनेंद्रम्’ पदों के आधार पर इसे ‘आदिनाथ स्तोत्र’ और ‘ऋषभ स्तोत्र’ भी कहा जाता है। अगर ‘प्रथमं जिनेंद्रम्’ का अर्थ जिनेन्द्रों अर्हन्तों में प्रमुख हो, तीर्थकर देव को लिया जाए, और क्योंकि प्रत्येक तीर्थंकर का युग उस तीर्थंकर के जन्म से प्रारंभ होता है, तो यह सामान्यतः सभी तीर्थंकरों या जिनेन्द्रों की स्तुति है। वैसे भी, स्तोत्र में कहीं भी किसी भी तीर्थंकर विशेष का नामादि परिचय सूचक कोई स्पष्ट संकेत नहीं है – भक्त अपने इष्टदेव, तीर्थकर भगवान या जिनदेव का ही स्तवन करता है, उसे एक ही उपास्य और आराध्य सत्ता मान कर।”

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